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मिटाओ अहं की निशा!

जनवरी 16, 2008

स्त्री ने आवाज उठायी है,

उसने पुनः ऊँचाई पायी है,

पर उससे पहले पार की एक खाई है।

पहले भी वह ऊँची थी,

सबसे ज़्यादा सम्मानित थी।

पर पुरुष को यह मंज़ूर कहाँ?

उसने तो रोड़े खूब अटकाए वहाँ।

पहले से पूजी जाती है वो,

दे देती है सबकुछ वो,

होता है उसके पास जो।

पर उसे तो गिराना चाहा,

मनमाने ढ़ंग से चलाना चाहा।

पर ऐसा कभी कर सके,

स्त्री तो वह आवेग है

जो कभी रुक सके।

ज्ञान उसका ज़्यादा है,

चाहे उठाया सबने फायदा है।

फिर भी अंदरअंदर कुढ़ते हैं।

उसकी स्फूर्ति से डरते हैं?

उसको गिराने का प्रयत्न करते हैं,

फल इसका खुद भरते हैं।

पहले नज़र बुरी दिखायी,

फिर उसे पर्दे में छिपायी!

कर दिया पंछी उसे बिन पंख का,

बस प्रयोग किया उसकी कंख का!

मत भूलो वह गुणों की खान है,

सभी को इसका अच्छी तरह भान है।

पुरुष ने तो उसे चारदिवारी में रख दिया!

सिर्फ़ घर तक सीमीत कर दिया!

क्या पृथ्वी को हिला पाया है कोई?

बहती धारा को तोड़ पाया है कोई?

हवा के झौकों को मोड़ पाया है कोई?

सूर्य की किरण को रोक पाया है कोई?

पर पुरुष ने तो यह सब करना चाहा,

हर बात पर स्त्री को टोकना चाहा!

भूल गए सारे आदर्श,

छोड़ दिए सारे परामर्श।

स्त्री को वस्तु समझ लिया,

भोग की और फेंक दिया।

उसकी कोई परवाह नहीं,

हो चाहे उसका निर्वाह नहीं,

लेकिन अब क्राँति आयी है,

फिर से नारी ने भ्रांति हटायी है।

पुरुष का मोह तोड़ दिया है,

उसे पीछे छोड़ दिया है,

समाज को नया मोड़ दिया है,

अपने हाथों को मजबूत किया है।

अब अंदरअंदर छटपटाहट है,

अपनी भूलों पर पछतावत हैं।

सोचते हैं यह क्या किया?

मिलामिलाया अधिकार दे दिया!

पर यह पुरुष की भूल है,

जो उसने समझा स्त्री को धूल है।

उसे अपनी मानसिकता बदलनी है,

अपनी भूलों की गुठली उगलनी है।

स्त्री तो पुरुष की साथी है,

उसकी जीवनदात्री है।

बिना उसके किसका अस्तित्त्व है?

बिना उसके किसका व्यक्तित्त्व है?

फिर वह क्यों सहन नहीं?

उसकी ऊँचाई वहन नहीं?

अरे! उसका म्मान करो,

उस पर तो अभिमान करो।

उसके कंधे से कंधा मिलाओ,

मन में भ्रम झिझक लाओ।

सबका मान करना धर्म है,

अपनों के आगे झुकने में कोई शर्म है।

दुनिया को दो नई दिशा,

बुद्धि के प्रकाश में मिटाओ अहं की निशा।