आतंकवाद से क्या लड़ेगें, निरीह लोग अपनी जान देते रहेंगे। पुलिस अपनी मुश्तैदी के गीत गाएगी, नेता अपना -अपना राग अलापेंगे। सांत्वना के शब्द बोलेंगे, कुछ मुआवजे की घोषणा करेंगे। जिनके घर के मरे वो रोएँगे, जिनको घाव मिले वो तड़पेंगे। बाक़ी सब चर्चा करेंगे। ज़रा लड़खड़ायी सी जिंदगी फिर से चलने लगेगी।
अज्ञेयने लिखा है-
” उड़ गयी चिड़िया,
काँपी फिर
थिर हो गयी पत्ती।”
– क्या यही जीवन है? हम यूँ ही असहाय से देखते रहें? हम क्यों इतने सजग नहीं है कि रखा हुआ बम पहले ही दिखायी दे जाए। सार्वजनिक जगह पर रखी लावारिश वस्तुएँ दिखायी नहीं देतीं!
– हमने ठेका थोड़े ही लिया है, यह तो सरकार का काम है। जानमाल की रक्षा तो उसे ही करनी है। हम तो जितना चाहे कोस सकते हैं। हमारे बस की बात है आतंकवाद जैसे बड़े विशालकाय राक्षस से लड़ना?
– हमारे बस की बात है- बिजली का कनेक्शन डाइरेक्ट कराना, बिल न के बराबर।
– हमारे बस में है रिश्वत देकर अपना काम पहले कराना।
-हमारे बस में सार्वजनिक वस्तुओं का प्रयोग अपने हित में करना।
-हमारे बस में है अनधिकृत कब्जा करके उसे अपना बताना।
है आप में ताकत कि आप रोक पायें?
-नहीं न? क्यों?
-क्यों कि कौन पड़ौस में बुरा बने, कौन शिकायत करके फालतू में दुश्मनी मोल ले?
– कौन हमारी सुनेगा? सब रिश्वत देकर छूट जाते हैं।
– तो क्या मिलकर विरोध नहीं कर सकते?
– कहाँ जो अपने को बड़ा समझते हैं वो तो आगे आते नहीं, साथ ही जो विरोध करें उन्हें अकेले में तो उकसाते हैं पर सामने उन्हें फालतू कहकर हवा में उड़वा देते हैं।
-आप ही बताएं कैसे आतंकवाद से निपटेगी जनता और सरकार जिसके पास इतने छोटे और दुस्साहस के कामों को रोकने की ताकत नहीं है।