गाँधीवाद जैसी बड़ी बात तो मैं नहीं कर रही पर उनके ’अहिंसा और प्रेम’ शब्द मुझे मंत्र समान लगते हैं जीवन में इनकी बहुतायत अगर हो जाए तो न जाने कितनी समस्याएँ स्वयं मोक्ष पा जाएँ।
समस्या चाहे व्यक्तिगत हों या सामाजिक, घर की हों या वसुधा की ये दो भाव अगर हावी हो जाएं तो
खुशी शब्द शब्द न रहकर हमारी अनुभूति बन जाए।
महात्मा गांधी ने सत्याग्रह को सर्वाधिक प्रभावशाली औज़ार बताया था, परन्तु आज वास्तविकता कुछ और है। फिर भी दिलासा है, परिवर्तन की आशा है-
नहीं कोई शिकायत है दुनिया से,
वाक़िफ हूं उसकी पूरी हुलिया से।
यहां सच मरता है,
झूठ ही झूठ बिकता है।
ईमानदारी छली जाती है,
समझदारी पड़ी रह जाती है।
बेईमानी का चलन है,
परिश्रम पर जलन है।
यदि तुम चाहो करना तपस्या,
तो दिखायी देंगी असंख्य समस्या।
तुम मजबूर किए जाओगे,
सच से दूर फेंके जाओगे।
बार-बार मिलेगा धक्का,
झूठ के सहारे चलेगा खोटा सिक्का।
बार-बार उठेगी अंगुली,
ज़बरदस्ती भिड़ेगें दंगली।
पर तुम्हें तो अडिग रहना है,
सच के साथ अपनी बात कहना है।
मत बहकना जीवन की राह में,
कभी झूठ मत बोलना धन की चाह में।
वरना तुम्हारी आत्मा मर जाएगी,
सोचने की शक्ति चली जाएगी।
शेष रह जाएगी सांसारिक काया,
और साथ में छलने वाली माया।
सच की राह पर चले जाना,
झूठ को मिटाने की मन में लाना।
धीरे-धीरे परिवर्तन आएगा,
दुनिया को सच से सजाएगा,
सर्वत्र होगी ईमानदारी,
एकत्र होगी समझदारी।
एक दूसरे पर त्याग करना,
जीवन में स्नेह के रंग भरना।
आएगी बड़ी क्रांति,
सर्वत्र होगी शांति॥
लालबहादुर शास्त्रीजी के गुणों की बात मैं नहीं कर सकती पर इतना अवश्य जानती हूँ कि हिम्मत और मेहनत अगर ईमानदारी के साथ मिल जाए तो ग़रीबी पानी भरती है और उँचाई नीचे गिर जाती है।
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आज गाँधीजी और शास्त्रीजी के विचारों की प्रासंगिकता कहीं अधिक है। आधुनिक-ज्ञान का प्रसार और प्रयोग अगर इनके आदर्शों से मिल जाए तो दुनिया बदल सकती है। पर-
नमन कैसे करूँ
नमन कैसे करूँ?
सुमन कैसे धरूँ?
दूँ श्रद्धांजलि कैसे तुझे?
शर्म आती है मुझे।
जो देकर गये थे तुम हमें,
खुद को खोकर छोड़ गये थे हमें,
था जो बलिदान दिया तुमने,
भारत माँ को दिलाया मान तुमने,
हमने उसे समझा अपनी विरासत,
बस उसे सोचा आराम की सहायक।
कर दिया भ्रष्टता का चलन,
भर दी एक दूसरे में जलन।
हिम्मत नहीं
तुम्हारी प्रतिमा से आँख मिलाने की,
तुम पर श्रद्धा से सिर झुकाने की।
मन में तूफ़ान उठते हैं,
दोनों हाथ जुड़ने से रुकते हैं।
आत्मा ग्लानि से भर रही है,
बार-बार यह प्रश्न कर रही है-
क्या हक़ है हमें?
यूँ खिलवाड़ करने का,
केवल स्वार्थ के भाव रखने का।
आज फिर क़सम लेते हैं
देश की एकता को अपनी जान समझते हैं।
अब ना भूलेंगे तुम्हारे आदर्श,
तुम्हारे दिये गये परामर्श।
प्यार की सूखी नदी को बहाएँगे,
जीवन में ईर्ष्या मिटा समानता लाएँगे।
भेद-भाव को पतझड़ करेंगे,
देश को नयापन देंगे।
टैग: अहिंसा, गांधीजी, लालबहादुर शास्त्रीजी, सत्य
अक्टूबर 2, 2009 को 20:48 |
dono kavitaayen bahut achhi lagi.
अक्टूबर 2, 2009 को 16:53 |
दोनो ही प्रणम्य हस्तियों के बारे मे आपने लिख कर नायाब अभिव्यक्ती दी है. अक्सर गांधीजी का जिक्र तो सभी जगह मिल जाता है पर इस अवसर पर आपने शाश्त्री जी को भी याद करके भाव विभोर कर दिया. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
अक्टूबर 2, 2009 को 13:19 |
बहुत सुन्दर पोस्ट. कवितायें सच्चाई दर्शाती हैं.
अक्टूबर 2, 2009 को 11:35 |
amulya kavitae
अक्टूबर 2, 2009 को 10:53 |
बहुत खुब। गांधी जी और लाल बहादुर शास्त्री जी के जन्म दिवस पर बेहतरिन प्रस्तुति।
अक्टूबर 2, 2009 को 10:49 |
नहीं कोई शिकायत है दुनिया से,
वाक़िफ हूं उसकी पूरी हुलिया से।
यहां सच मरता है,
सत्य वचन आपके , सच मरता है झूठ खिलता है
अक्टूबर 2, 2009 को 10:41 |
मन को अभिव्यक्ति देती इन कविताओं के भाव अमूल्य हैं।