प्राचीन भारतीय वाङग्मय अलंकारिक और प्रतीकात्मक भाषा में लिखा हुआ है , हर बात को सगुण रुप में ही बताया गया है; पर आज उनके गूढ़ार्थ न निकाल कर शब्दार्थ को ही सब कुछ मान लेने से अर्थ का अनर्थ हो रहा है। यही कारण है कि प्राचीन ग्रंथों की खिल्ली सी उड़ायी जाती है। हम पहले भी लिख चुके हैं प्राचीनता ही नवीनता का आधार है। पुराने ग्रंथों के आधार पर ही आगे बढ़ा गया है और आज हम बहुत आगे निकल चुके हैं। आज चर्चा है प्रकाशपुञ्ज सूर्य की। श्रीमद्भागवतपुराण में सूर्य के विषय में विस्तार से वर्णन किया गया है। सूर्य की स्थिति बतायी है –
“अंडमध्यगतः सूर्यो द्यावाभूम्योर्यदन्तरम।
सूर्याण्डगोलयोर्मध्ये कोट्यः स्युः पञ्चविंशतिः॥”
स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में जो ब्रह्माण्ड का केंद्र है वहीं सूर्य की स्थिति है।
“मृतेऽण्ड एष एतस्मिन यद भूत्ततो मार्तण्ड इति व्यपदेशः।
हिरण्यगर्भ इति यद्धिरण्याण्डसमुद्भवः॥”
इस अचेतन में विराजने के कारण इसे मार्तण्ड भी कहा जाता है। यह ज्योतिर्मय(हिरण्यमय) ब्रह्मांड से प्रकट हुए हैं इसलिए इन्हें हिरण्यगर्भा भी कहते हैं। सूर्य ही दिशा, आकाश, द्युलोक (अंतरिक्ष) भूलोक, स्वर्ग और मोक्ष के प्रदेश , नरक, और रसातल और अन्य भागों के विभागों का कारण है। सूर्य ही समस्त देवता, तिर्यक, मनुष्य, सरीसृप और लता-वृक्षादि समस्त जीव समूहों के आत्मा और नेत्रेन्द्रियके अधिष्ठाता हैं, अर्थात सूर्य से ही जीवन है।
“सूर्येण हि विभज्यन्ते दिशः खं द्यौर्मही भिदा।
स्वर्गापवर्गोनरका रसौकांसि च सर्वशः॥”
” देवतिर्यङ्मनुष्याणां सरीसृपसवीरुधाम।
सर्वजीवनिकायानां सूर्य आत्मा दृगीश्वरः॥”
सूर्य ग्रहों और नक्षत्रों का स्वामी है। सूर्य उत्तरायण, दक्षिणायन और विषुवत नाम वाली क्रमशः मंद, शीघ्र और समान गतियों से चलते हुए समयानुसार मकरादि राशियों में ऊँचे-नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन रात को बड़ा,छोटा या करता है। जब मेष या तुला राशि पर आता है तब दिन-रात समान हो जाते हैं। तब प्रतिमास रात्रियों में एक-एक घड़ी कम होती जती है और उसी हिसाब से दिन बढ़ते जाते हैं। जब वृश्चिकादि राशियों पर चलते हैं तब इसके विपरीत परिवर्तन होता है। श्रीमद्भागवपुराण में सूर्य की परिक्रमा का मार्ग नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन बाताया है।समय के साथ सूर्य को स्पष्ट करने के लिए बाँधा गया रुपक दृष्टव्य है: सूर्य का संवत्सर नाम का एक चक्र (पहिया) है , उसमें मास रुपी बारह अरे हैं, ऋतुरुप छह नेमियाँ हैं और तीन चौमासे रुप तीन तीन नाभियाँ हैं।
ज्योतिष के अनुसार सूर्य सबसे तेजस्वी, प्रतापी और सत और तमोगुण वाला ग्रह कहा गया है। यह आत्मा का कारक और हृदय एवं नाड़ी संस्थान का अधिपति है। सूर्यसमस्त ब्रह्मांड का केंद्र ज्योतिष में भी माना गया है। जैसा कि हमने पहले लिखा है कि प्राचीन ज्ञान का हर विषय मानवीकरण और रूपक के माध्यम से स्पष्ट किया गया मिलता है। सूर्य भी इससे अछूता नहीं है। सूर्य को मानव/अवतार/देवता मानते हुए उसका जन्म अदिति (प्रकृति) से हुआ माना गया है। सूर्य की दो पत्नियाँ अर्थात सहचरी बतायी गयीं हैं। प्रथम-संज्ञा( चेतना या ऊर्जा) और दूसरी छाया । छाया की कोख़ से शनि का जन्म हुआ। गुणों में पिता से विपरीत धर्म-कर्त्तव्य वाला होने के कारण शनि पिता सूर्य के साथ मनमुटाव जैसा व्यवहार करता बताया गया है, परंतु सूर्य पुत्र के अवगुणों को तो कुदृष्टि से देखता है पर पुत्र के साथ तट्स्थ बना रहता है। सूर्य कृतिका, उत्तराषाढ़ा और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रों का स्वामी है। (कृतिकानक्षत्र ज्ञानार्जन, पशुपालन, रोग, अनासक्ति, अशांतऔर तार्किकता इत्यादि गुण-प्रधान बताया गया है तो उत्तराषाढ़ा चित्रकला, सफाई, यश-कीर्ति, प्रज्ञा, पुष्टता, गर्वीलापन, दृढ़ता और निपुणता जैसे विषयोंका प्रधान बताया गया है लेकिन उत्तराफाल्गुनी तेज-स्मरणशक्ति, कला-कुशलता, व्यवहार-कुशलता, एकांतप्रेमी, माता-पिता के सुख से वंचित जैसे गुणों की प्रधानता वाला बताया गया मिलता है।) सूर्यसिंहराशि जो काल-पुरुष( समय का मानवीयकरण) का आमाशय/ पेट माना गया है और गणना से पांचवी राशि है, का स्वामीलिखा है और भावों के अनुसार पाँचवाँ भाव शिक्षा, संतान, शौक और आदत का है।
सितम्बर 7, 2009 को 18:09 |
this is reality of our ancient and authantic books .this is need of the hour to present the clear picture or to present the secret behind stories in our books. i also doing my best effort in this regard. i think it is our duty
मई 4, 2007 को 09:44 |
जी हाँ। यही बताना तो हम चाह रहे हैं कि पहले पृथ्वी से देखकर यह समझा गया और अब अंतरिक्ष से पृथ्वी को समझा जा रहा है। यह विवरण पुराणों के समय का है। इतिहास है।
मई 4, 2007 को 09:38 |
par sury kahan ? prithawi chalati hai?