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बसंत-पंचमी

जनवरी 23, 2007

बसंत ऋतु का स्वागत है। बसंत को ऋतुओं का राजा अर्थात सर्वश्रेष्ठ ऋतु माना गया है। इस समय पंच-तत्त्व अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रुप में प्रकट होते हैं। पंच-तत्त्व- जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि सभी अपना मोहक रूप दिखाते हैं। आकाश स्वच्छ है, वायु सुहावनी है, अग्नि (सूर्य) रुचिकर है तो जल! पीयूष के समान सुखदाता! और धरती! उसका तो कहना ही क्या वह तो मानों साकार सौंदर्य का दर्शन कराने वाली प्रतीत होती है! ठंड से ठिठुरे विहंग अब उड़ने का बहाना ढूंढते हैं तो किसान लहलहाती जौ की बालियों और सरसों के फूलों को देखकर नहीं अघाता! धनी जहाँ प्रकृति के नव-सौंदर्य को देखने की लालसा प्रकट करने लगते हैं तो निर्धन शिशिर की प्रताड़ना से मुक्त होने के सुख की अनुभूति करने लगते हैं।
सच! प्रकृति तो मानों उन्मादी हो जाती है। हो भी क्यों ना!!! पुनर्जन्म जो हो जाता है! श्रावण की पनपी हरियाली शरद के बाद हेमन्त और शिशिर में वृद्धा के समान हो जाती है, तब बसंत उसका सौन्दर्य लौटा देता है। नवगात, नवपल्ल्व नवकुसुम के साथ नवगंध का उपहार देकर विलक्षणा बना देता है।
हमें इस सौंदर्य का मात्र वर्णन ही नहीं करना चाहिए बल्कि उसके अस्तित्त्व को बचाए रखने के लिए भी तत्पर रहना चाहिए ठीक वैसे ही जैसे किसी देश की सीमा पर प्रहरी रक्षा के लिए सजगता से खड़े रहते हैं। यदि हमने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया तो वह दिन दूर नहीं जब प्रकृति का सौंदर्य केवल पढ़ा ही जा सकेगा या विलुप्त-जीवन की श्रेणी में दिखायी देगा! प्रकृति की सेवा अपने तन-मन-धन से करना और उसके जीवन के हर रुप को बनाए रखना ही हमारी बसंत-पंचमी की सच्ची पूजा है।
अब प्रस्तुत हैं पिछले साल ‘श्रद्धांजलि’ पत्रिका के लिए लिखे कुछ हाइकू –
( इनमें पौराणिक-कथाओं में वर्णित बसंत के महत्त्व को ही लिखने की चेष्टा की है।)-
बसंत

बसंत भरा
मानो पीत है धरा
अल्हड़ जरा।

महकी हवा
तनमन सा खिला
प्यार में डूबा।

बेलें मुस्काएं
भंवरे पास आएं
कली लजाएं।

मस्त बहार
डोली में दुल्हन

ढोएं कहार।

शिव भी जगे
काम व्यापन लगे
क्रोध में भरे।

बसंत छाए
काम कांपन लगे
रति डराए।

त्रिनेत्र खोले
काम भस्मी बनाई
सब में डोले।

प्यार के पगे
शिव-पार्वती संग
नाचन लगे।

देवता हंसे
शंकर खूब फंसे
स्रष्टि को रचें।

सभी सुखमय रहें ऐसी मनोकामना के साथ।