मन खोलने से पहले ज़रा सोचें… अपनी बात कहने के अनेक ढंग हैं। रोने, हंसने, गाने, बजाने, नृत्य, लेखन, चित्रकारी और भी कई तरह से हम अपनी बात दूसरों तक पहुंचा सकते हैं। इन्हीं भेदों को बहुत सारे विभेदों में बाँट दिया गया है।
जिस बात को जिस रुप में प्रभावशाली ढंग से बताया जाता है वही ढंग विधा बन जाती है। एक ही भाव को हम अनेक प्रकार से अभिव्यक्त कर सकते हैं। अभिव्यक्ति के दो मूल भाग हैं- भावगत और शैलीगत या ढंगगत।
वाणी और फिर बोली और बोलने के बाद लिपि ने हमारी अभिव्यक्ति को बहुत ही सरल और सुगम्य बना दिया है। हम हर भाव को किसी भी रुप में व्यक्त करने के साथ-साथ शब्दों में तो अभिव्यक्त कर ही सकते हैं। यही अभिव्यक्ति जब सौन्दर्य के साथ होती है तो कला कहलाती है।
कहते हैं ब्रह्मा ने प्रकृति को अपने ज्ञान के अनुसार रच दिया यानि समस्त प्राकृतिक सौंदर्य बिखेर दिया , पर अभिव्यक्ति को नहीं बनाया। तब उन्होंने देखा कि कोई भी उस सौंदर्य से प्रसन्न नहीं दिखायी दिया। वह उदास हो गए और सरस्वती से बोले – ” इतनी मेहनत से सौंदर्य फैलाया पर कोई भी खुश नहीं है।” तब सरस्वती ने उन्हें समझाया – ” आपने अपना कार्य कर दिया है अब मेरा बाक़ी है।” यह कहकर उन्होंने वाणी-ध्वनि और मन को जन्म दे दिया। फिर क्या था सारे में खुशियाँ फैल गयीं। लोग प्राकृतिक-सौंदर्य को अभिव्यक्त करने लगे। इसतरह अभिव्यक्ति का जन्म हुआ।
हम जैसा अनुभव करते हैं वैसा ही दूसरों को बताते हैं। अभिव्यक्ति के लिए प्रभावित होना अति आवश्यक है। चाहे हम अपने से प्रभावित हों या किसी और से बताएंगे तभी जब कुछ विचार या भाव पैदा हुआ होगा- चाहे वह अच्छा हो या बुरा। विचार या भाव कहाँ से आता है? यह एक बात है। स्वस्थ मस्तिष्क में विचार भी स्वस्थ ही आते हैं। जब मन में विकार हों तो विचार भी कलुषित होते हैं। इसीलिए हमारे प्राचीन ग्रंथों में अध्यात्म के उपर विशेष ध्यान देने की सलाह दी गयी है।
ज्ञान प्राप्त कर लेना हि सब कुछ नहीं है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में इन बातों को कहानी के रुप में चरित्रों के माध्यम से कहलाया गया है। रावण, कंस और दुर्योधन जैसे पात्रों के ज़रिए यही कहलाया गया है कि ज्ञान कितना ही अधिक क्यों न हो यदि आचरण और व्यवहार अच्छा नहीं तो व्यर्थ है। उनके कार्य और अभिव्यक्तियाँ ही उनके मनोविकारों को स्पष्ट कर देती हैं।
व्यक्ति और समाज की पहचान उसकी अभिव्यक्ति होती है।आज जब हम विकास की उँचाइयाँ छू रहे हैं तब भी यह पुरानी बात लागू होती है। हमारी अभिव्यक्ति ही हमारा चरित्र बता देती है। हम पुराने समय की अपेक्षा आज ज्ञान प्राप्त करने में और प्रयोग करने में कहीं अधिक आगे निकल चुके हैं पर कुछ कमी प्रतीत होती है। क्यों कि सामांजस्यसमग्रता की कमी है। अभिव्यक्ति वह कर सकती है जो न तो सरकार कर सकती है और न कोई और , हाँ यदि कोई कर सकता है तो वह है कलाकार, जो अपनी बात बड़े की सौन्दर्य के साथ अभिव्यक्त कर सकता है तरीक़ा चाहे कोई भी क्यों न हो। परंतु जब कला एक व्यवसाय बन जाती है तो उसमें बनावटीपन आ जाता है तब वह कला कला न रह कर एक साधन बन जाती है- आजीविका का। यह अभिव्यक्ति व्यक्तिगत संतुष्टि देती है और कला का प्रवाह रोक देती है।
कलाकार को समाज को प्रतिबिम्बित करना चाहिए और अच्छाई का संदेश भी देना चाहिए नकि मात्र अपनी तुष्टि और धन की लिप्सा हेतु सृजन करना चाहिए। समाज कोई किसी की निजी चीज नहीं है यह सभी केलिए औए सभी से बना है। इसकी उन्नति ही व्यक्तिगत उन्नति है। व्यक्तिगत हितों को ध्यान में रखकर किए गये प्रयास उल्टे असर डालते हैं। हो सकता है कि हम आज अपनी मनमानी से जी लें लेकिन आने वाली पीढ़ी क्या हमारी नहीं होंगी? उनका ख्याल रखकर कुछ करें। बुराई निकालना जितना आसान है उसका समाधान ढूढ़ना उतना ही कठिन।
प्राचीन अभिव्यक्तियों में सच्चाई के साथ प्रस्तुति थीं। बुराई को भी ज्यो का त्यों बताया परंतु साथ ही साथ आदर्श का ध्यान भी रखा जाता था। हर अभिव्यक्ति में कोई न कोई सीख होती थी। आज क्यों नहीं?
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ईद
रोज़े बाद ईद है आती,
सारे में खुशियाँ भर जातीं!
नए-नए कपड़े सिलवाते,
सबको ईदी भी दिलवाते।
खाएं मिठाई और सेवैंया,
गले मिलें प्यार से भैया।