हमारी दादी जिनको (बहत्तर साल की आयु में) दिवगंत हुए भी पैंतालीस साल से ऊपर हो गए हैं, यह कहानी सुनाया करती थीं।
एक राजा था उसकी रानी के एक ही भाई था। भाई बहुत चतुर था। राजा की ग़लत बातों के लिए टोकता रहता था। राजा को यह बात पसंद नहीं थी। उसने अपने साले से संबंध ख़त्म कर दिए।
आया भाई-दूज का त्योहार। साला बहिन के महल में पहुँचा पर यह क्या वहाँ तो सात पहरे लगे थे। पहरेदारों ने बताया कि राजा ने उसके प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है। वह जीजा के दरबार में पहुँचा और अपनी बहिन से टीका कराने की अनुमति मांगी पर राजा ने तलवार खींच ली और उसे मारने दौड़ा।
साला भी गुस्से में आगया, बोला-” कोई ताक़त मुझे टीका कराने से नहीं रोक सकती। देखो मैं टीका करा कर यहीं दरबार में वापिस आकर दिखाऊँगा।”
राजा ने पहरा कठोर कर दिया। कोई परिंदा पर न फैला सके।
इधर रानी दुखी और परेशान चिन्ता में बैठी थी। तभी नाली से एक पिल्ला कूं-कूं करता अन्दर आगया। रानी गुस्से से चिल्लायी और उसके रोली की थाली फेंक कर मारी। थाली पिल्ले के माथे पर लगी। पिल्ला कूं-कूं करता भागया।
राजा दरबार में बैठा था। तभी उसका साला आया। और बोला -‘देखो जीजाजी! मैं तो आपके पहरे तोड़कर अपनी बहिन से टीका करा आया अब आप चाहें तो मेरा क़त्ल कर दें।’
राजा गुस्से में भरकर अन्दर महल में गया और रानी पर तलवार खींचकर बोला-’ जब मैंने मना किया था तो तुमने भाई को अंदर क्यों बुलाया?’
रानी समझ ही न पायी। वह बोली’ मैंने? मैंने तो उसे देखा तक नहीं।’
राजा- फिर टीका कैसे कर दिया?
रानी- टीका?
राजा हाँ।
रानी- जब वह आया ही नहीं तो टीका कैसे कर देती?
राजा ने तुरंत अपने साले को अंदर बुलाया और उससे पूछा। तो उसने बताया कि बहिन की खातिर वह पिल्ले के वेश में आया। बहिन ने रोली की थाली फेंककर मारी तो टीका लग गया।
राजा ने हार मान ली और साले को गले लगा लिया फिर रानी से विधिवत टीका लगाने को कहकर चला गया। बहिन-भाई का प्यार जीत गया।