ले रंग पर कोई और रंग नहीं चढ़ पाता है। रंगरेज लाख कोशिश करे पर काला तो अमिट होता है। इसके पक्केपन के करण ही यह जीवन में गहरे प्रभाव छोड़ने के लिए उपमा\रूपक\उत्प्रेक्षा रुपी आभूषण की तरह प्रयोग होता है।
काला रंग अपनी बाहरी पहचान में यूँ तो अधिकाँशतः रात, बुरे विचार\काम\भाव इत्यादि का प्रतिनिधित्त्व करता है, पर प्रेम जैसे पवित्र भाव के लिए काले रंग के आंतरिक गुण उसके गहरे पक्के और अद्वितीयपन के साथ-साथ प्रभावहीनता भी समेट में आ जाते हैं।
प्रेम के प्रभाव के आगे जैसे सबकुछ प्रभावहीन हैं वैसे ही काले रंग के आगे सब कुछ रंगहीन है। पर कभी किसी ने इस पर सवाल नहीं उठाया कि काला रंग नकारात्मक भावों का प्रतिनिधित्त्व करता फिर इसको प्रेम जैसे पवित्र भाव की गहराई के लिए क्यों उदधृत किया जाता है। क्या कभी सोचा नहीं या वे पुराने लोग…?
शब्द से छेड़छाड़ उन लोगों की लेखन-भावना का अनादर करना है जिन्होंने उसको यहाँ पर खड़ा किया है। चिट्ठा-लेखन विज्ञान, तकनीकी के साथ-साथ मातृभाषा-प्रेम, भारतीय निर्पेक्षता और एकता का व्यवहारिक रुप है।
चिट्ठा शब्द हिन्दुस्तानी भाषा का प्रतीक बन चुका है। यहाँ मात्र साहित्यकारों और सरकारी राजभाषा को ही नही बल्कि आम आदमी की तद्भव-तत्सम और मिश्रित भाषा को भी विस्तार मिला है।
यहाँ प्रांतीय, देशज और लोकभाषा के शब्द जो मिटने ही वाले थे या मिट चुके थे उनका प्रयोग करके उनको जीवनदान दिया है। चिट्ठा उन सबका संरक्षक है।
’चिट्ठा’ परिचायक है हिंदीभाषी की अंतर्जाल पर लेखन परंपरा का। यहाँ वर्तनी और हिज्जे की शुद्धी की जगह भाव को और विचार को प्रधानता दी गयी है।
चिट्ठा अनुभूति कराता है – जैसे- अम्मा शब्द में जो बात है वह माताजी या म’द’अर में नहीं।
यह जाल पर अनौपचारिक, अपनत्त्व लिए लेखन का परिचायक है न कि किसी खड़ूस की भाँति खड़ी बोली के क्लिष्ट शब्दो का लबादा ओढ़े गहन विचार का शॉकेस।
चिट्ठा चिट्ठी का बड़ा रूप है। इसमें चिट्ठी जैसी आत्मीयता के दर्शन होते हैं।
अन्त में चिट्ठा ’ लेखन की आत्मा है’, एक नया नाम है-लिखाई के लिए, उसका अपना कलेवर है, बनावटीपन से दूर अल्हड़ और दीवानगी का अनुभूतिदायक है। उसे किसी भी तरह का मुलम्मा न चढ़ाया जाए। यह हिंदी की संजीवनी बनेगा। अभी तक मुलम्मों ने हिंदी का सबसे ज़्यादा नुकसान किया है, उसे फैलने से रोका है दूसरी बहिनों से दिलखोलकर मिलने पर पाबंदी लगायी है जिससे उसका तनाव इतना बढ़ गया कि वह अपने आत्मा, मन और शरीर सभी का मोह छोड़ बैठी है। हो सके तो उसको स्वच्छंदता में साँस लेने दिया जाए ताकि वह स्वस्थ जीवन बिता सके। ज़्यादा नियँत्रण व्यक्तित्त्व में बाधक होता है। हिंदी तो स्वच्छंद नदी है जहाँ ढ़लान देखेगी वही मुड़ जाएगी कोई ज़रुरत नही इसे बाँधने की यह कहीं बाढ़ न लाएगी और अगर लाएगी भी तो सिंचाई ही करेगी भावों और विचारों की अभिव्यक्ति की।