फूल तो खिल रहे हैं बाग़ में,
पर मुझे उनका सौंदर्य रिझाता नहीं,
चाँद की चाँदनी में लगे है तपिश,
तारों का जमघट लुभाता नहीं।
जो नज़ारे कभी लगते थे मनोहर ,
उनका दिखना भी सुहाता नहीं,
ये क्या हो गया है इंसान को,
उसे कोई और इंसान भाता नहीं।
कितनी नफ़रत हैं सब तरफ़,
कोई प्यार की हवा चलाता नहीं।
सब लगे हैं अपने ही स्वार्थ में,
कोई इनकी राह भटकाता नहीं।
सूझती है सभी को अपनी बात,
कोई दूसरे की बात बनाता नहीं।
ग़र न हो सिद्धी किसी राह से,
तो उस राह पर कोई जाता नहीं।
हो सके तो बदल लो अपनेआप को,
अपनी-अपनी से कोई कुछ पाता नहीं।
ज़िद्द है बस यह तुम्हारी कुछ देर की,
आतंक फैलाकर कोई कुछ पाता नहीं।
लड़ोगे, लड़ाओगे, मिटजाओगे,
पर फिर किसी से नाता नहीं।
जिनके इशारों पर नाचो हो तुम,
उनकी बदनीयत को तुमने जाना नहीं।
बड़े क़साई हैं वो बड़े बेरहम,
उनके दिल में प्यार का ठिकाना नहीं।
उकसाते हैं, भड़काते हैं, मिटाते हैं वो,
अपना मुँह किसी को दिखाते नहीं।
हो सके तो चल पड़ो प्यार की राह पर,
बहककर हथियार उठाते नहीं।