
पवित्र गुफ़ा के बाहर श्रद्धालू
गहरी नींद में सो हुए हमे कुछ पता नहीं। बाहर की हलचल से नींद खुली तो पर्दा हटाकर देखा, वाह!!! आकाश की नीलिमा अनोखी थी। मानो कल यहाँ बादल झाँके भी न हों! ऊँचे शिखरों पर दिवाकर अपना अधिपत्य करके उन्हें मोती और प्लैटिनम-जड़ित कर आलोक परावर्तित कर रहा था। उस छटा को देखकर स्वतः हाथ नमस्कार में जुड़ गए और मस्तक झुक गया। अलौकिक सौंदर्य!!! यही है प्रकृति का चमत्कार।
धीरे-धीरे रश्मियाँ और नीचे तक बिखरने लगी और पूरा बालटाल धवलगिरि की गोद में सुशोभित हो गया। लेहमार्ग बिल्कुल सामने दिखायी दे रहा था। हम जबतक बालटाल में रहे वहाँ ट्रकों का जाम ही दिखायी देता रहा। धन्य हैं हमारे इंजीनियर्स और श्रमिक जिन्होंने इतनी ऊँचाई पर मार्ग बनाया!!!
सब लोग तरोताज़ा होने में व्यस्त हो गए। पाँच रुपए का एक मग गर्म पानी हाथ धुलाने और ब्रश करने के लिए। ठंडे पानी को तो छूना भी मुश्किल था। तीस रुपए का एक बाल्टी गर्म पानी नहाने के लिए। सब जल्दी-जल्दी तैयार हो गए। मौसम अच्छा था शायद आज यात्रा खुल जाए? फ़ोर्स के दफ़्तर में पता किया तो बताया गया कि ऊपर मौसम बहुत खराब था, पहाड़ों से पत्थर गिर रहे थे इसलिए आज शायद ही यात्रा खोली जाए। लेकिन लोगों को तो अपनी पड़ी थी। पैदल चलने वाले यात्री सुबह चार बजे से यात्रा जाने वाले मार्ग में खड़े थे और उनकी लाइन दो किलोमीटर लंबी हो गयी! हम लोग तैयार होकर धूप में बैठ गए। क़्यूम ने कहा – ’अगर यात्रा शुरु होगी तो मैं आपको बता दूंगा।’ लगभग नौ बजे सभी टेंटों में हलचल मच गयी। ’भोल’ के नारे गूँजने लगे। यात्रा चालू कर दी गयी। हमारे साथ जो लोग पैदल जाने वाले थे वे निकल गए, पर हमारे जैसे जो पैदल नहीं चल सकते वे घोड़े और पालकी शुरु होने का इंतज़ार करने लगे। पर उस दिन घोड़े-पालकी शुरु न हुए , क्योंकि पहले दिन दो घोड़े और घोड़े वाले फिसल कर मर गए। ऊपर से पत्थर आ गिरे। कहावत है ’जाको राखे सांईयाँ मार सके न कोय।’ घोड़े पर चढ़े व्यक्तियों ने उतरने की इच्छा ज़ाहिर की और उतर गए। घोड़े वाले घोड़े के साथ खड़े थे, तभी ऊपर से पत्थर गिरे और दोनों भगवान को प्यारे हो गए। घोड़ों की लाशें अगले दिन भी खाई में पड़ीं थीं।
उस दिन हम प्रतीक्षा में ही रह गए। बाद में पता चला कि फोर्स ने एक-एक घंटे के लिए पैदल यात्रियों के लिए रास्ता खोला था। रास्ता इतना खराब था कि कुछ लोग स्वयं बीच में से आगए और कुछ को सिपाहियों ने वापिस कर दिया।
हमने फिर मिलट्री-ऑफ़िस से पता किया तो पता लगा कि अगले दिन घोड़े और पालकी चलाए जाएँगे अगर मौसम सही रहा तो। दुविधा के कारण मन भटक रहा था। हेलीकोप्टर का पता किया तो पता चला कि वहाँ तीन दिन पहले की बुकिंग चल रही थी। वहाँ नंबर नहीं आता कई दिन तक।
हम चारों लोग थे जो घोड़े पर ही जाना चाहते थे। रात को ही घोड़ेवाले तय करके उनके आई-कार्ड रख लिए गए। अगली सुबह ढ़ाई बजे नहाकर प्रस्थान स्थल की ओर चल पड़े। हमसे पहले लोग निकल चुके थे। इतनी भीड़ और शोर कि कुछ पता भी न चले। अँधेरे में सभी घोड़ेवाले एक से नज़र आरहे थे। पर घोड़े वालों ने हमें पहचान लिया और साढ़े तीन के आसपास हम भी भोले के दर्शन की अभिलाषा में बढ़ गए। ऊपर तारों का जमघट लिए आकाश तुषार-पात कर रहा था। ठंडी तूफ़ानी हवा तूफ़ानी-बाबा से मिलने की धुन में भी अपनी अनुभूति करा रही थी। अपार भीड़! नीचे कींचड़मय पानी। भोले की जय-जयकार। बम-बम भोले!!! हमारे जैसे डरपोक से ठीक से जय भी न निकले। पर मिलट्री और पुलिस का प्रबंध पूर्ण अनुशासन बनाए हुए था। दोमेल ( बालटाल से दो किमी) तक का चौड़ा रास्ता समाप्त होते ही जवानों ने एकल पंक्ति बना दी। तब भी चार पंक्तियाँ बन गयीं। पैदल, आने, पैदल जाने, घोड़े आने और घोड़े जाने, साथ ही पालकी भी बीच में आजातीं। फिर भी पहले दिन की दुर्घटनाओं के कारण
लोग अनुशासन में ही थे। रास्ता इतना खड़ा मानों दीवार पर ही चल रहे हों!
चलते-चलते पौ फट गयी तब कुछ दिखायी देना शुरु हुआ। अभी चले ही कितनी दूर थे कि जीभ पर काटें चुभने लगे। घबराहट और प्यास। भोले की जगह रामराम करके बुराड़ी ( बालटाल से सात किमी) तक पहुँचे।
बीच-बीच में रास्ता बहुत फिसलन भरा था तो सवारी को कुछ देर पैदल चलना था। हम अर्थराइटिस और स्पोंड्लाइटिस के मरीज सोचकर ही काँप गए। जैसे ही चलना शुरु करें सिर फटने को तैयार। असहनीय वेदना। चक्कर आएँ। वहीं बैठ गए। संगम टॉप ( अमरावती और पंचतरणी का संगम) पर घोड़े रोक दिए गए। तब फ़ोर्स के जवान हमें अपने कैम्प में ले गए चाय-वाय पिलायी और हौंसला बढ़ाया फिर हमारा हाथ पकड़ कर वो दूरी पार करायी। पर यह क्या वहाँ इतना जाम था कि लोग तीन-तीन घंटे से अपने घोड़े का इंतज़ार कर रहे थे। पैदल लाइन भी रेंग रहीं थी। सब वापिस जाने की बात करने लगे। हमारा मन खिन्न और परेशान था। क्या हम दर्शन कर भी पाएँगे या नहीं? पर भोले ने सुन ली कुछ घंटे इंतज़ार के बाद घोड़ेवाले आगए हम आगे बढ़े। तभी घमासान बारिश शुरु हो गयी।
उधर कल के गए यात्री लौटकर आ रहे थे जो मार्ग में जाम लगा देते थे। धन्य हैं जवान/सिपाही जो बिना उत्तेजित हुए कंट्रोल कर रहे थे। उनके धैर्य की परीक्षा थी वह भीड़ कंट्रोल करना। यात्री अपने को वीआईपी समझ रहे थे। गारे जैसी कींचड़ तो कहीं बर्फ़ की चट्टानों से होकर रास्ता। पतली संकरी पगडंडी!!! दाईं ओर विशाल पर्वत तो बाईं ओर हजारों फिट गहरी खाई जिसमें ग्लेशियर बिछे थे। हे प्रभु मार देना पर हाथ-पैर मत तोड़ना। कोई ग़लती हुयी हो तो क्षमा करना पर इस दलदल से निकालो। एक बार तो वापिस आते घोड़े ने हमारे घोड़े को ऐसा धक्का दिया कि वह आधा खाई की तरफ़ और आधा पगडंडी पर। हम बुरी तरह डर गए। सोचा अब तो नीचे लुढकना पक्का है। पर हमारे घोड़े वाले ने स्वयं खाई में पैर रखकर घोड़े को रास्ते पर ला दिया। हम चीख़कर चुप हो गए।
आगे जाने पर मार्ग में ही ग्लेशियर शुरु हो गए। घोड़े बर्फ़ पर चल रहे थे। अब फिसले तब फिसले। तेज हवा अपना प्रभाव फैला रही थी। रुक-रुक कर बारिश हो रही थी। मानो हम किसी ध्रुव पर आ गए हों। चारों ओर बस हिम की चादर। भव्य दृश्य! सामने गुफ़ा दिखायी पड़ने लगी। हमें लगा अब शायद दर्शन कर पाएँगे। पर यह क्या जैसे ही घोड़े वाले ने हमें उतारा हम फिसल्कर छः फुट नीचे। सब लोग चिल्लाए। सिपाही ने भागकर हमारा हाथ पकड़ा और जगह पर लाया।
जहाँ हम खड़े थे वहाँ से गुफ़ा बहुत ऊँचाई पर थी, हम तो बर्फ़ की और पत्थर की लगभग सौ सीढ़ी देखकर घबरा गए। तभी पता चला कि वहाँ तक पालकी भी हो जाती हैं। हम सब ने पालकी की और वहाँ पहुँच गए। पंद्रह-बीस सीढ़ियाँ फिर भी चढ़नी पड़ी। जिनको चढ़ना भी एक चुनौती था। सिपाहेयों की मदद से हम शिवलिंग तक पहुँचे। विशाल और गहन गुफ़ा जिसमें हर जगह से पानी टपक रहा था। पर शिवलिंग एक ही जगह बन रहा था। यही चमत्कार था। वातावरण में धुंध थी। स्नोफ़ॉल लगातार हो रहा था। पर किसी को अब चिंता नहीं थी। मंजिल पर पहुँच चुके थे। बम-बम भोले!, बोल महादेव की जय! के नारे, शंख और घंटे की ध्वनि हिमालय को गुंजायमान कर रहीं थीं। सुनसान स्थल पर कैसी उमंग! कैसा उत्साह! कैसा मनोहारी दृश्य!!! हम चालीस मिनट तक गुफ़ा में दूर खड़े होकर दर्शन करते रहे। प्रसाद लिया और चल पड़े। तभी एक दक्षिण-भारतीय श्रद्धालू ज़ोर-ज़ोर से ताली बजाकर अपनी पत्नी से ऊपर की ओर इशारा कर रहा था। हम भी ऊपर देखने लगे। वहाँ गुफ़ा की छत में खकोड़ में एक सफेद कबूतर मटक रहा था, तभी गुफ़ा की छत के ऊपर एक कबूतर और दिखायी दिया। पास में ही एक नेवला और बीझू से मिलता-जुलता जानवर टहल रहा था और बर्फ़ में से कुछ खा रहा था। एक लाल बड़ी सुंदर चिड़िया फुदक रही थी। पर कैमरा ले जाने की मनाही के होते हम चित्र न उतार सके।
इन सब को देखते हुए फिसलते-संभलते सबसे पास के लंगर में घुस गए। वहाँ चाय पी और कुछ मिनट तक बैठ गए। बर्फ़ पर ही टेंट लगाकर लोगों के विश्राम की सुविधा कर रखी थी। हिंदु-मुस्लिम सब पूजा का सामान बेच रहे थे। धार्मिक सौहार्द्र का अनूठा नमूना! चाहे उसके पीछे में पैसा कमाने का भाव ही क्यों न हो।
बाहर ज़ोर की बर्फ़बारी हो रही थी। बर्फ़ीली हवा चल रही थी। समय था दोपहर साढ़े तीन बजे का। हमसब इतने थक गए कि कोई बात नहीं करना चाहता था। सब चुप रहना पसंद कर रहे थे। तभी सोनू ने कहा देखो धूप निकल आयी! सच में बाहर तेज धूप चमक रही थी। प्रकृति कितनी मनमौजी है। अपने बारे में कुछ सोचने नहीं देती। सब बाहर आ गए और वापिस चलने के लिए घोड़े तलाशने शुरु किए। दुगुनी क़ीमत माँग रहे थे। जैसे-तैसे तैयार हुए। हम चारों वापिस हो लिए।