हिंदी भारत के जन-जन की भाषा है। मजदूर की भाषा है, रिक्शे वाले की भाषा है, दर्जी की भाषा है, किसान की भाषा है और हर अनपढ़-ग़रीब की भाषा है। हर महान साहित्यकार उसके विषय में लिखकर न जाने कितना धन कमा लेता है और नाम रौशन कर लेता है। लोग कहते हैं कि फलाँ व्यक्ति ज़मीन से जुड़ा है, बड़ी संवेदनशीलता से सृजन कर लेता है मानों हर पात्र में खुद ही भोग रहा हो, परंतु क्या हमने सोचा है कि जिस विषय-वस्तु को अपनाकर , जिस घटना को कल्पना का मुलम्मा चढ़ाकर एक लेखक विश्वस्तरीय इनाम का हक़दार बन जाता है उसका वह मुख्यपात्र पाई-पाई और दाने- दाने को मोहताज होता है। यही विडंबना हिंदी की भी है। हाय हिंदी ( कोई सा भी हाय) तो सभी चिल्ला रहे हैं, पर हिंदी भाषी के विषय में नहीं सोच रहे हैं। क्या बिना बाँस के बासुरी बज जाएगी? नहीं।
हालात इतने बदतर हैं कि क़स्बों और शहरों में लोग पढाई तो अँगरेजी माध्यम से कराते हैं ही (रोजी-रोटी का सवाल है) रोजमर्रा में भी हिंदी के शब्दों को बोलना छोड़ रहे हैं। नमस्ते या अन्य अभिवादन के शब्दों की जगह हाय और हैलो हो गये हैं। बच्चे को पॉटी और शुशू आता है। मम्मी ( दादी-अम्मा, चाची-ताई, बुआ, मौसी, मौसा और फूफा तो अनपढ़ बोलते हैं) ब्रेकफास्ट बनाती है। अंक तो हिंदी में ज़ाहिल बोलते हैं। क्या यही है हिंदी का उत्थान? हाथी के दांत खाने के और और दिखाने के और। हम हिंदी के पुजारी हैं, हिंदी हमारी माँ है कहकर हम अपनी झेंप मिटाते हैं। कहीनकहीं व्यवसाय तलाशते हैं।
व्यक्तिगत कामों में अँगरेजी का प्रयोग क्यों? सरकार से पत्राचार हम भी तो हिंदी में कर सकते हैं। पर नहीं, स्तर गिर जाता है। अँगरेजी आज भी दूसरी सरकारी कामकाज की भाषा है, पर सामाजिक जीवन में क्या मजबूरी है?
हिंदी लिखने से ज़्यादा बोलने की ज़रुरत है। जब बोल ही नहीं रहे हैं तो लिखित को कैसे आगे ले जा सकेंगे? जो ले जाएँगे वो अपना पेटेंट करा लेंगे। हिंदी लिखना उनका अधिकार हो जाएगा, हो भी क्यों न वे ही तो हिंदी बोल रहे हैं। ग़रीब में न तो इतनी ताक़त है और न बूता जो वह हिंदी अधिपतियों से भिड़ सके। वह तो बस लोकभाषा बोलता रहेगा और हिंदी लेखन कुछ ही लोगों का अधिकार बनकर रह जाएगा। होश में आने की बहुत ज़रुरत है।
अभी भी समय है जब हम सच्चे मन से हिंदी के उत्थान के लिए जुट जाएं। सामाजिक-साँस्कृतिक सभी व्यवहारिक कामों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा दें। कहकर हिंदी को बढ़ाना कभी सार्थक नहीं होगा, बल्कि करके दिखाया जाय। व्यवहारिकरुप ही प्रभावशाली होता है – यह सर्वविदित है।
यदि आम जीवन में हिंदी को सलाम या नमस्कार की ओर ले जाना है, हाय-हैलो के फंदे की जकड़न को हटाना है तो सभी को व्यवहार में हिंदी अपनानी होगी ही। क़स्बा और शहरों में तो इसकी बहुत ज़रुरत है।
जुलाई 9, 2007 को 18:52 |
मैथिली जी टिप्पणी हेतु धन्यवाद।
-किसी भी भाषा को जानना बहुत ही अच्छी बात है। अँगरेजी तो अन्तराष्ट्रीय भाषा है; दुनिया की सबसे धनी भाषा है, हमारे देश की द्वितीय दर्जे की सरकारी भाषा है, उसका ज्ञान प्राप्त करना अलग बात है। हिंदी से कोई तुलना नहीं है। बात हिंदी के विकास की है।
-श्रीश अवश्य सोचें और औरों को भी प्रेरित करें। धन्यवाद।
जुलाई 9, 2007 को 00:09 |
फिलहाल हम तो नमस्कार और प्रणाम आदि का प्रयोग करते ही हैं, हाँ पहले से काफी कम जरुर हो गया है।
आपका लेख बहुत सटीक है, सोचने पर मजबूर करता है। क्या हिन्दी एक दिन हिंग्लिश बन कर रह जाएगी।
जुलाई 8, 2007 को 19:44 |
अंग्रेजी का प्रयोग हम सिर्फ इसीलिये करते हैं क्योंकि उससे हमें दो पैसे कमाने में सहूलियत हो जाती है. न तो हिन्दी में लिखकर कोई लेखक कुछ कमा पाता है, न हिन्दी के सृजन को एसी व्यापक सराहना मिलती है जितनी अंग्रेजी के लेखक को. निराला के नियति को सुना है हमने. मुंशी प्रेमचन्द के कलम के सिपाही में पढ़ा है कि उन्हें कैसे कैसे पापड़ बेलने पड़े थे.
हिन्दी के कितने लेखक विश्वस्तरीय इनाम के हकदार बने हैं?
आईये इन परिस्थितियों पर विमर्श करें!